Monday, April 6, 2009

सफल वो ही जीवन हैं,औरो के लिए जो अर्पण है ....


"" देहदान ""
राजीव गांधी के निधन के पश्चात उनकी प्रथम पुन्यतिथी की बात हैं,उदयपुर शहर मैं यूथ कांग्रेस की और से श्रर्दांजन्लि सभा का देहलीगेट सर्कल पर कार्यक्र्म रखा था,तब मैं यूथ कांग्रेस का महासचिव था, नेताओ के विचार चल रहे थी ,की सभा मैं अगले विचार की लिए वरिष्ट कांग्रेसी और शहर की जाने माने उस्ताद श्री बंशी उस्ताद का नाम उदबोधन की लिए पुकारा गया, श्री बंशी उस्ताद मेरे पिता थे,(मेरे पिता को इसी नाम से ही जाना जाता था,पहलवानी के साथ साथ एक व्यायाम शाला का सञ्चालन करना और एक गुरु के तरह अपने शिष्यों को प्रशिक्षण देने के कारण एवं समाजसेवा करना और शहर मे उच्च राजनितिक रसूख से मेरे पिता को "उस्ताद का दर्जा मिला हुआ था) अपने उदबोधन को पूरा करते ही उन्होंने ने जेब से कुछ कागज निकाल कर बताया की मैं अपने जीवन की सभी वर्ष पुरे करने की बाद अपना शरीर नोजवान विधाथीँ जो डॉक्टर की पढाई कर रहे हैं , उनको मानव शरीर की जानकारी दैने, उसको अंगो को समझने की लिए ,हॉस्पिटल मैं अपना शरीर निधन की बाद दान कर दिया है और और उसके एवज मैं यह कागज पुख्ता साबुत हैं,जो की मैंने अधिकृत रूप से रजिस्टर्ड करवा दिए हैं, उपस्थित जन समुदाय ने बंशी उस्ताद अमर हो, और जय जय कर की नारे लगाने शुंरु कर दिए, मेरे तो वहा होंश ही उड़ गए की पापा ने ने यह क्या कर दिया....सभा समाप्त होने की बाद घर पहुचने पर घर मैं बवाल मच गया मेरी माता और बहन ने रो रो कर बुरा हाल कर दिया, हमारे पुरे परिवार मे तूफान आ गया..हमारी हिन्दू संस्कृति मे यह कहा गया है की मैं जब तक शरीर को अग्नी की हवाले नहीं कर दिया जाता तब तक आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता,कोन इन्सान अपने परिवार की किसी खास सदस्य की निधन की बात करना चाहता है की उसके मरने की बाद उसको क्या करेंगे, कैसे जलाएंगे आदि आदि...हमारे तो शरीर पर जैसे पत्थर ही पद गए हो, हमारी हालत ऐसे हो गई थी की जैसे हमारे पिता की निधन अभी ही हो चुका हैं और पूरा माहोल गमगिन हो गया था....आप समझ सकते हैं उस स्थिती को.. पिता को रात भर समझाने की कोशिश करते रहे, न जाने क्या क्या हवाले दिए, कितना उनको गलत बताया की उन्होंने क्या कर दिया..वो कुछ भी नहीं बोले...हमने कहा की आप ने जो करना था वो आप कर चुके, अब हम यह कहते हैं कें भले ही आपने घोषणा कर दी हैं, परन्तु हम ऐसा नहीं करेंगे, आपके सोई ही वर्ष होने की बाद हम तो आप को हिन्दू रिवाज़ के अनुसार ही दाह संस्कार का कार्य करेंगे..चाहे कुछ भी हो जाये...हम आप की घोषणा का अमल नहीं करेंगे, हम अपने पिता की निधन की बात पिता कें ही सामने कर रहे थे, क्या स्थिती थी ..भगवान ही जाने उस समय हमारी हालत क्या थी ...पिता शांत रहे ..कुछ न बोले... दिल से बड़े दुखी लग रहे थे ..चार रोज़ बाद पुरे परिवार को बुलाया और पिता ने कहना शुंरु किया...कहा के, आप सब लोगो को जो कहना था कहा, अब मेरी सुन लो, यह मेरा जीवन हैं, मेरा शरीर है ,मेरी इच्छा हैं, मेरा विचार हैं और मेरी घोंषणा है, मेरी मृत्यु के बाद आप परिवार वाले मेरे साथ क्या व्यवहार करेंगे मुझे नहीं मालूम, चाहे तो आप मुझे जला दो या गाड दो,या फिर कही पर फ़ेंक कर आ जाओ, मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन एक बात तय हैं की अगर आप लोगो ने मेरी भावना के अनुरूप मेरे निधन के बाद मेरा क्रियाक्रम नहीं किया तो मेरी आत्मा कभी सुखी नहीं रह सकेगी और न ही मुझे मोक्ष प्राप्त होगा, क्या मेरा शरीर पर भी मेरा अधिकार नहीं है, मैंने जिन्दगी भर आप लोगो को पाला पोसा, बड़ा किया और परिवार को चलाया , कभी किसी से कुछ नही माँगा, हमेशा परिवार के बारे मैं उनके भरण पोषण के बारे मैं ही सोंचा, अपने बारे मैं मैं कभी नहीं नहीं सोचा सिर्फ सबकी भलाई और ताजिंदगी सबकी सेवा करता रहा...अब मैं अपने निधन के बाद आप से एक तुच्छ वादा मांग रहा हु तो आप सब मिल कर मुझे देने से मना कर रहे हें,और मेरे को गलत ठहरा रहे है , यह कहा तक सत्य हैं और न्याय है. अगर आप सब मेरे लिए जीवन मैं कुछ करना चाहते हों तो मेरी भावना के क़द्र करो वर्ना आप जो चाहे वो मेरे लाश के साथ करना, कोई कहने वाला नहीं होगा...और वो उठ कर चले गए..पूरा परिवार सकते मैं आ गया, अब क्या करे, हम कुछ भी करने की स्थिती मैं नहीं थे, जो कुछ भी करना था वो तो उन्होंने (पिता) कर दिया.. फिर समय को टालते रहे , साल गुजरते गए..हम सब मैं केवल मैं और मेरे बड़े भाई ने मेरे पिता की बात का कमजोर तरीके से ही सही,दुखी मन से ही सही कुछ मन मैं यह मानस बना लिया की पिता की अंतिम इच्छा को पूरा करने का प्रयास करेंगे....आखिरकार १० जून १९९८ को हमारी जिन्दगी का सबसे कठिन और महनुस दिन आगया ..मैं शॉप पर बैठा हुआ था, की घर से फ़ोन आया की पापा की तबियत ख़राब हों गई हैं..८० साल की उम्र तक एक भी बार कोई दवाई नहीं लेने वाले और अंतिम समय तक काम करने वाले मेरे पिता की तबियत ख़राब हों गई है...जिन्हें लकवे ने भी घेर लिया और अपने हिम्मत से उस लकवे से भी निजात पा लेने वाले और निधन से पूर्व आधे घंटा पहले स्यमं अपने हाथो से १२०० फीट का ग्राउंड साफ़ करने वाले मेरे पिता की तबियत ख़राब हों गई है....क्या समाचार था...हॉस्पिटल लेने जाते समय ही रास्ते मैं शरीर ठंडा हों चूका था, लेकिन फिर भी डॉक्टर की राय जरूरी थी .समय ख़तम हों चूका था, डॉक्टर ने कहा की उस्ताद हमें छोड़ कर चले गए हैं.....पुरे परीवार पर व्रजप्रात हों चूका था , उस्ताद अपना काम कर फानी दुनिया को विदा कर गए.. और छोड़ गए अपने विचारो और अपने शरीर को हमारे लिए ..वो सब करने की लिए जिसके लिए उन्होंने जिन्दगी को जिया...अब कुछ करने की बारी हमारी थी...पिता की बात,उनके विचार उनका सम्मान और इच्छा की पूर्ति करने की समय आ गया..चिंता थी की अब माता को कैसे राजी करे...लेकिन देखो पिता का प्रभाव की माता ने सबसे पहले आगे बाद कर पिता की अंतिम इच्छा पूरी करने का हम परिवार वाले को आदेश दिया की अपने पिता को दिए गए वादा को पूरा करो और पुरे सम्मान और आदर और गर्व के साथ उनके शरीर को चिकित्सा जगत के लिए प्रक्षिशनाथिँयो और शोधार्थियों के अध्ययन के लिए और समस्त मानव जगत के कल्याण के लिए अपने पिता के शरीर को चिकीत्सालय मैं दान कर दो. माता का यह व्यवहार और अपने पति के विचारो का यह सम्मान हमें पहली बार देखने को मिला और उनकी भावना के अनुरूप पुरे मान सम्मान के साथ गाजे बाजे के साथ और खुली गाड़ी मैं अथाह जन समुह के साथ शहर मैं उनकी शव यात्रा निकालते हुए हमने चिकित्सा जगत के भलाई के लिए मेडिकल बोर्ड को अपने पिता को सोंप दिया. आज हमें उस पिता के संतान कहलाने मैं गर्व महसूस होता है कि हमरे पिता ने वो काम कर दिखाया हैं जिससे कितने ही ऐसे विधाथीँ हैं जो उनके इस महान प्रयास से चिकित्सा सेंवा दे रहे हैं. और मानव कल्याण के कार्य को पूरा कर मेरे पिता को सच्ची श्रर्दांजन्लि दे रहे हैं.यह हमारे परिवार के लिए काफी गर्व के बात हैं और हमारे पिता जीते जी तो हमारे और सबके काम आये ही और अपने निधन के बाद भी हमारे और सारे संसार को जगमग किये हुए हैं.. एक अलख जगा गए हैं...इसके बाद भी और एक वाक्या हैं की निधन के ३ साल बाद मेरे पिता के शव को सावर्जनिक तौर पर जनता को मानव शरीर के अंगो के जानकारी देने के लिए प्रदर्शेन के लिए रखा गया था(हमारी इतनी हिम्मत नहीं थी के हम अपने पिता को इस प्रकार इतने साल बाद देख सकते थी,हम वो मेडिकल फेयर नहीं देखने गए) दोस्तों यह कहानी ,लेख मैंने इसलिए नहीं लिखी हैं के यह मेरे पिता की और हमारे परिवार की कहानी हैं बल्कि इसलिए यहाँ पर लिखी हैं के आम लोगो को देहदान,रक्तदान,नेत्रदान,और शरीर के ऐसे कई अंग हैं जिनको हम अपने निधन के बाद भी दुसरो के सेवा मैं, भलाइँ हेतु और चिकित्सा जगत मैं नए प्रयोग हेतु दान करने के लिए प्रोसाहित कर सके ,(इसमें एक तकलीफ जरूर मुझे हुई हैं की हॉस्पिटल प्रशाशन के ओर से ऐसे काम को बढ़ाने के लिए हमें कभी याद नहीं किया, उनकी ज्यादा जिम्मेदारी बनती हैं की जनता मैं जागरूकता लाने के लिए कुछ तो करे..). उनको जागरूक करना हैं ताकि हमारी आज की एवं आने वाली पीढी निरोग और स्वस्थ जीवन बिता सके अपने परिवार और माता पिता इसलिये दोस्तों अपने जीवन मे ऐसा एक काम अवश्य करो जो आपको अपने मरने के बाद बाद भी सबको याद रहे......और मानव कल्याण मैं काम आये. मैं भी प्रयासरत हु...मुझे आश्रीवाद देवै और मे कोशिश करूँगा की मेरी और सबकी संतान भी मेरे महीर्षि दधिची जैसे पिता की तरह जीवन मैं कुछ करे उनका अनुसरण करे,,और अपने परिवार और माता पिता का नाम रोशन करे ...आज की इस नई पीढी को,यूवाशक्ति को मार्गदर्शन की बहुत आवश्यकता हैं हैं...ध्यान रहे कि देश मैं कई ख़राब गलत,साम्प्रदायिँक ताकते हैं...कही वो इनको भटका न देवे... आपकी जय हों आपका संजय

3 comments: